भारतीय रिज़र्व बैंक
मौद्रिक नीति 2010-11 की पहली तिमाही समीक्षा
डॉ.डी.सुब्बाराव
गवर्नर
भूमिका
पहली तिमाही की यह समीक्षा एक ऐसे समष्टि आर्थिक माहौल में तैयार की गई है जो अप्रैल में की गई हमारी नीति घोषणा के समय से उल्लेखनीय रूप से बदल चुकी है। उस समय वैश्विक सुधार को लेकर कुछ आशावादिता थी, इसकी रफ़्तार चाहे जितनी धीमी हो। इस महीने की शुरुआत में प्रकाशित अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ़) के पूर्वानुमानों से इसे बल मिला जिसमें कहा गया कि वैश्विक वृद्धि अप्रैल 2010 में किए गए अनुमानों की अपेक्षा कुछ अधिक रहेगी। इस वृद्धि का अधिकांश तो उभरती बाजार अर्थव्यवस्थाओं (ईएमईज़) से आएगा जबकि, विकसित अर्थव्यवस्थाएं अपनी स्थिति कायम रखेंगी। लेकिन ग्रीस के सरकारी ऋण संकट तथा यूरोप व अमेरिका में दिख रहे दूसरे नाजुक जगहों के मद्देनजर फ़िर से यह अनिश्चितता आ गई है कि स्थितियों में आ रहा सुधार क्या लंबे समय तक जारी रह पाएगा।
2. इसके विपरीत, घरेलू मोर्चे पर, रिकवरी के पैर जम चुके हैं और क्रमश: इसकी व्यापकता बढ़ रही है। कई क्षेत्रों में क्षमता संबंधी सीमाओं को लेकर चिंता बढ़ रही है। जहाँ मुद्रास्फ़ीतीय दबाव बढ़े हैं, वहीं गत वर्ष की तुलना में अब तक मानसून उल्लेखनीय रूप से बेहतर रहा है। हालांकि समग्र भारत स्तर पर दीर्घावधि औसत की तुलना में बारिश अभी भी कम है, फ़िर भी इतनी तो जरूर हुई है कि बुवाई वाले इलाकों में उन कई फ़सलों में अच्छी खासी बढ़ोत्तरी हुई है जिनकी बढ़ती कीमतें चिंता का एक बड़ा कारण बनी हुई हैं।
3. इस समीक्षा में मौद्रिक नीति रुख को जिसने सबसे ज्यादा प्रभावित किया है, वह है बढ़ी हुयी मुद्रास्फ़ीति। खाद्य कीमतों की मुद्रास्फ़ीति, और अपेक्षाकृत तौर पर उपभोक्ता मूल्य मुद्रास्फ़ीति में कुछ नरमी आई है,पर वे अभी भी दुहरे अंकों में बनी हुई हैं। खाद्येतर मुद्रास्फ़ीति बढ़ी है और मांग पक्ष (डिमांड साइड) के दबाव साफ़ दिख रहे हैं। आर्थिकवृद्धि के पैर जम जाने पर पर नीति का रुख स्पष्टत: मुद्रास्फ़ीति पर लगाम कसने और मुद्रास्फ़ीतिकारी प्रत्याशाओं को स्थिर करने की ओर होना चाहिए।
4. इस नीति समीक्षा को समष्टि आर्थिक और मौद्रिक गतिविधियों में दी गई विस्तृत समीक्षा के साथ पढ़ा और समझा जाए जो रिज़र्व बैंक द्वारा कल जारी की गई है। यह वक्तव्य चार भागों में हैं। भाग I में वैश्विक और घरेलू समष्टि आर्थिक घटनाचक्र का एक खाका दिया गया है; भाग II में आर्थिक विकास, मुद्रास्फीति, मुद्रा और ऋण समुच्चयों (एग्रिगेट्स) से जुड़े परिदृश्य और आकलन हैं, भाग III में मौद्रिक नीति के रूख को बताया गया है और भाग IV में मौद्रिक उपायों का विवरण है।
I. अर्थव्यवस्था की स्थिति
वैश्विक अर्थव्यवस्था
5. अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ़) ने अपने वर्ल्ड इकोनामिक आउटलुक के जुलाई अपडेट में पहली तिमाही की वृद्धि दरों के आधार पर विश्व की वृद्धि के संबंध में अप्रैल में किए अपने 4.2 प्रतिशत के आकलन को बढ़ाकर 4.6 कर दिया है। तथापि, वैश्विक वृद्धि के कुछ तीव्रतर होने की आइएमएफ़ की प्रत्याशा ईएमईज़ के संबंध में कुछ ज्यादा आशावादी होने का परिणाम है। विकसित अर्थव्यवस्थाओं के विभिन्न आकलनों में रिकवरी की वर्तमान रफ़्तार के जारी रहने के प्रति निराशावाद बढ़ता दिखाई पड़ रहा है। इस बात की बड़ी व्यापक आशंका है कि 2010 की दूसरी छमाही में वैश्विक अर्थव्यवस्था धीमी पड़ सकती है ।
6. अमेरिका में, ऊँची बेरोजगारी, आय में मामूली बढ़ोत्तरी, कमतर आवासीय धन, और ऋण में तंगी (टाइट क्रेडिट) के चलते रिकवरी में बाधाएं आ रही हैं। यूरो के क्षेत्र में आर्थिक कार्य-कलाप मंद अवश्य है पर हाल के उथल-पुथल को देखें तो जितना अनुमान था, उससे अधिक सुदृढ़ है। कुछ यूरो अर्थव्यवस्थाओं में वृद्धि की संभावनाओं पर सरकारी ऋण के स्तर को बनाये रखने के प्रति चिंता के बादल छाए हुए हैं।
7. इसके विपरीत, उभरती बाजार अर्थव्यवस्थाओं (ईएमईज़) में मजबूत वृद्धि देखने को मिल रही है जिसका कारण प्रबल घरेलू मांग, माल की रिस्टॉकिंग, और वैश्विक व्यापार है जिसमें अब तक तो सुधार दिखाई दे रहा है। कई ईएमईज़, विशेष तौर पर एशिया में आर्थिक वृद्धि, बहुत तेजी से ट्रेंड की ओर बढ़ रही है। समष्टि-अर्थव्यवस्था के आधारभूत पक्षों का मजबूत होने, कंपनियों एवं परिवार-इकाइयों के दोष रहित तुलन पत्र (बैलेंस-शीट), सुदृढ़ बैंकिंग क्षेत्र और प्रभावी राजकोषीय और मौद्रिक प्रोत्साहन से उभरती बाजार अर्थव्यवस्थाओं में बड़ी तेजी से रिकवरी हुई।
8.आउटपुट के बड़े अंतराल और बेरोजगारी की ऊँची दरों के कारण विकसित देशों में मुद्रास्फ़ीति नरम रही। मुद्रास्फ़ीतिकारी प्रत्याशाएं भी सुस्थिर रहीं। वहीं दूसरी ओर, उभरती बाजार अर्थव्यवस्थाओं में तेजी से उभर रहे क्षमता अवरोधों के कारण मुद्रास्फ़ीति बढ़ रही है जिसके कारण कई जगहों पर उदार व विस्तारी मौद्रिक नीति से कदम वापस लिए जा रहे हैं।
घरेलू अर्थव्यवस्था
9. 2009-10 में भारतीय अर्थव्यवस्था 7.4 प्रतिशत बढ़ी। यह गति विशेष रूप से अधिक 2009-10 की चौथी तिमाही में 8.6 प्रतिशत की वृद्धि के कारण रही जबकि पिछली तिमाही में 6.5 प्रतिशत वृद्धि हुई। स्थिर बाजार कीमतों पर तो, चौथी तिमाही में वृद्धि और तेज, 11.2 प्रतिशत रही जिससे पता चलता है कि कर उगाही में अच्छी बढ़ोतरी हुई है।
10. औद्योगिक उत्पादन सूचकांक ( आइ आइ पी) में अक्टूबर 2009 में जो दुहरे अंकों वाली वृद्धि प्रारंभ हुई थी, वह चालू वित्तीय वर्ष में जारी रही, यद्यपि इसमें मई 2010 में कुछ कमी आई थी। इस वित्तीय वर्ष के पहले दो महीने, अप्रैल-मई 2010 में, आइआइपी में 14 प्रतिशत की वर्ष-दर-वर्ष वृद्धि दर्ज की गई जबकि सत्रह में से पंद्रह उद्योग समूहों (दो अंकों का एनआइसी वर्गीकरण) में धनात्मक वृद्धि देखने को मिली। सर्विस सेक्टर के अग्रणी संकेतक भी आर्थिक कार्य-कलापों में बढ़ोतरी बता रहे हैं।
11. इस मॉनसून में अब तक (21 जुलाई, 2010 तक) कुल बारिश अपने दीर्घावधि औसत(एलपीए) से 14 प्रतिशत से कम रही है। तब भी, पिछले साल के मुकाबले मॉनसून काफ़ी बेहतर रहा है, जो कि खेती के लिए शुभ संकेत है। फ़सल-वार क्षेत्र पर मिलने वाले आँकड़े कह रहे हैं कि गत वर्ष के मुकाबले वृद्धि अच्छी हुई है।
12. फ़िर भी, मुद्रस्फ़ीति का वर्तमान परिदृश्य कई कारणों से चिंता में डालने वाला है। पहला, फ़रवरी 2010 से ही थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यू पी आइ) मुद्रास्फ़ीति दोहरे अंकों में बनी हुई है। थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यू पी आइ) में आए अंतर से मापी गयी समग्र मुद्रा स्फ़ीति (हेडलाइन इनफ्लेशन) मई 2010 के 10.2 से बढ़कर जून 2010 में 10.6 प्रतिशत हो गई। नोट करने वाली बात यह है कि, रिवाइज़्ड डेटा पर आधारित मार्च की 11.0 प्रतिशत और अप्रैल की 11.2 प्रतिशत की थोक मूल्य सूचकांक मुद्रास्फ़ीति अनंतिम आँकड़ों की तुलना में एक पर्सेंटेज प्वाइंट अधिक है। यदि यह पैटर्न जारी रहा, तो हाल के महीनों के थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यू पी आइ) मुद्रास्फ़ीति के अंतिम आँकड़ों के उच्चतर होने की अपेक्षा की जा सकती है।
13. दूसरे, एक ओर जहाँ प्राथमिक खाद्य वस्तु मुद्रास्फ़ीति दोहरे अंकों (14.6 प्रतिशत) में है, वर्ष-दर-वर्ष थोक मूल्य सूचकांक खाद्येतर निर्मित उत्पाद (भार:52.2 प्रतिशत) मुद्रास्फ़ीति, जो नवंबर 2009 में (-) 0.4 प्रतिशत थी, उसके बाद बढ़कर मार्च 2010 में 5.4 प्रतिशत हो गई और जून में 7.3 प्रतिशत को छू गई। खाद्येतर वस्तुओं की मुद्रास्फ़ीति (खाद्य उत्पाद और खाद्य वस्तुओं को छोड़कर मुद्रास्फ़ीति) जो नवंबर 2009 में लगभग शून्य के पास थी, तेजी से बढ़ते हुए जून 2010 में 10.6 प्रतिशत तक चली गई। उल्लेखनीय यह है कि जून 2010 में थोक मूल्य सूचकांक मुद्रास्फ़ीति में खाद्येतर वस्तुओं का योगदान 70 प्रतिशत से अधिक रहा जिससे यह पता चलता है कि मुद्रास्फ़ीति काफ़ी व्यापक रूप में फैल चुकी है। तीसरे, हाल के महीने में आई कुछ नरमी के बावजूद विभिन्न सूचकांकों से मापी गई उपभोक्ता मूल्य मुद्रास्फ़ीति दोहरे अंकों में बनी हुई है।
14. मुद्रा आपूर्ति (एम3) की वर्ष-दर-वर्ष वृद्धि मार्च 2010 के अंत के 16.8 प्रतिशत से कम होकर 2 जुलाई 2010 को 15.3 प्रतिशत के स्तर पर रह गई जो बैंक जमाराशियों की वृद्धि में आ रही गिरावट दिखलाती है। मीयादी जमाराशियों में कमी आई जिसकी मुख्य वज़ह पब्लिक सेक्टर अंडरटेकिंग्स और म्यूचुअल फ़ंडों द्वारा निकासी थी। जमाराशियों की घटती वृद्धि दर के बीच उच्चतर ऋण वृद्धि के लिए पैसा लाने के लिए बैंकों ने म्यूचुअल फ़ंडों में किया हुआ अपना निवेश छुड़ा (अनवाउंड कर) लिया और रिज़र्व बैंक की रिपो खिड़की का प्रयोग किया ।
15. वर्ष दर-वर्ष खाद्येतर ऋण की वृद्धि मार्च 2010 के 17.1 प्रतिशत से बढ़कर 2 जुलाई 2010 तक 22.3 प्रतिशत हो गई। यह वृद्धि दर अप्रैल 2010 के मौद्रिक नीति वक्तव्य में दिये गये संकेत से कहीं ऊंची है । यह औद्योगिक कार्य-कलापों में तेजी तथा 3-जी व ब्रॉडबैंड वायरलेस एक्सेस (बीडब्ल्यूए) स्पेक्ट्रम नीलामियों का मिला-जुला परिणाम था। वाणिज्य क्षेत्र को बैंक ऋण में वृद्धि में दूसरे स्रोतों से आने वाले धन में हुई अधिक वृद्धि ने पूरक का काम किया। मोटे तौर पर किए गए आकलन से पता चलता है कि बैंक, बैंकेतर और बाहरी स्रोतों से 2010-11 की पहली तिमाही के दौरान आने वाले कुल वित्तीय संसाधन 2,50,000 करोड़ रुपए के रहे जबकि 2009-10 की पहली तिमाही कुल 61,000 करोड़ रुपए आए थे।. अलग-अलग आँकड़े दर्शाते हैं कि कृषि, उद्योग, सरविसेज़, और पर्सनल लोन्स जैसे सभी प्रमुख क्षेत्रों में नवंबर 2009 से ही ऋण वृद्धि बेहतर होने लगी थी।
16. जमाराशियों की ओर देखें, तो बैंकों ने मार्च 2010 और 16 जुलाई, 2010 के बीच जमा दर (डिपॉज़िट रेट्स) 75-100 आधार अंक बढ़ाए। उधार देने के मामले में जुलाई 2009 से जून 2010 के अंत तक अनुसूचित वाणिज्य बैंकों के बेंचमार्क उधार दर (बीपीएलआर) में कोई बदलाव नहीं आया। 01 जुलाई, 2010 से बैंकिंग तंत्र ने बेस रेट सिस्टम अपना लिया। प्रमुख बैंकों के बेस रेट 7.25 - 8.00 प्रतिशत की रेंज में हैं। हालांकि, उधारकर्ताओं के मुख्य वर्गों के लिए प्रभावी उधार दर के संबंध में जानकारी अभी उपलब्ध नहीं है, बेस रेट सिस्टम से यह अपेक्षा है कि इससे ऋण-मूल्य-निर्धारण (क्रेडिट प्राइसिंग) प्रभावी ढंग से काम करेगा। आगे, इससे उधार दरों में पारदर्शिता आएगी और मौद्रिक नीति संप्रेषण बेहतर होगा।
17. 2010-11 की पहली तिमाही में मुद्रा बाजार व्यवस्थित रहे हैं। एक महत्त्वपूर्ण घटनाक्रम यह रहा कि रिज़र्व बैंक की चल निधि समायोजन सुविधा (एल ए एफ) लगभग 18 महीने सरप्लस की स्थिति में रहने के बाद मई 2010 के अंत में घाटे की स्थिति (डेफ़िसिट मोड) में आ गई और तब से वहीं बनी हुई है। अपेक्षा से अधिक 3-जी व बीडब्ल्यूए स्पेक्ट्रम नीलामियों से मिला धन और एडवांस टैक्स पेमेंट से सरकारी कैश बैलेंस में बढ़ोत्तरी चलनिधि पर इस दबाव का कारण था ।'
18. चलनिधि के सक्रिय प्रबंधन की नीति के अनुरूप और ऋण के प्रवाह में उथल-पुथल को रोकने के लिए, रिज़र्व बैंक ने दबाव कम करने वाले कई कदम उठाए। पहला, 26 मई 2010 को रिज़र्व बैंक ने एलएएफ के तहत अनुसूचित वाणिज्य बैंकों को उनके निवल मांग व मीयादी देयताओं (एनडीटीएल) के 0.5 प्रतिशत तक अतिरिक्त लिक्विडिटि सपोर्ट दिया। दैनिक आधार पर दूसरा (सेकेंड) एलएएफ़ (एसएलएफ) भी उपलब्ध कराया गया। ये दोनों सुविधाएं, शुरुआत में 02 जुलाई, 2010 तक ही उपलब्ध थीं। बाद में इनकी समय सीमा बढ़ा दी गई। अतिरिक्त चलनिधि सहायता सुविधा 16 जुलाई, 2010 तक बढ़ाई गई। एसएलएफ 30 जुलाई, 2010 तक बढ़ाई गई। दूसरा, सरकार के साथ परामर्श करके , जून 2010 में ट्रेज़री बिलों के जारी होने हेतु अधिसूचित राशि में 22,000 करोड़ रु.की कमी की गई। तीसरा, 16-21 जून के दौरान सरकार ने कार्यक्रम के पहले ही 9,614 करोड़ की सिक्यूरिटिज़ खरीद ली।
19. जून और जुलाई 2010 (23 जुलाई तक) में रिज़र्व बैंक ने निवल चलनिधि डाली। परिणामस्वरूप, मई तक एलएएफ़ कॉरिडोर की निचली सीमा के आस-पास रहने वाली दैनिक ब्याज दरें, जून 2010 में ऊपरी सीमा को छू गईं और जुलाई में अब तक वहीं बनी हुई हैं। इसी प्रकार, मनी मार्केट के अन्य निवेशों पर आय (यील्ड) बढ़ी, जिससे मौद्रिक स्थितियों के 150 आधार अंकों तक स्वायत्त मौद्रिक सख़्ती का पता चलता है जो एलएएफ़ कॉरीडोर के वर्तमान दायरे के समतुल्य है।
20. दूसरी ओर लंबी समय की प्रतिभूतियों में, 10-वर्षीय बेंचमार्क सरकारी सिक्यूरिटी पर मासिक औसत आय इस प्रत्याशा में अप्रैल 2010 के 8.01 प्रतिशत से गिरकर जून 2010 में 7.59 प्रतिशत हो गईं कि स्पेक्ट्रम नीलामियों के कारण सरकार की बाजार उधारियां कम होंगी। उसके बाद जुलाई 2010 के तीसरे सप्ताह तक आय 7.73 प्रतिशत की ऊँचाई तक गई।
21. चालू वित्तीय वर्ष के दौरान इक्विटि बाजार मे उतार-चढ़ाव देखा गया, तथापि हाल के सप्ताहों में उनमें तेजी आई है। पूँजी बाजार के प्राथमिक क्षेत्र में कॉरपोरेट्स द्वारा पब्लिक ईश्यू के जरिये संसाधन जुटाने का ट्रेंड ऊपर की ओर बना रहा। गत तिमाही की तुलना में विदेशी मुद्रा बाजार में अस्थिरता अधिक रही जबकि रुपए ने 44.33रु. से 47.51 रुपए प्रति डॉलर की रेंज में दोनों तरफ़ की गति दिखाई।
22. 2010-11 की पहली तिमाही के दौरान अंकित और वास्तविक प्रभावी विनिमय दर (नीर एंड रीर) दोनों बढ़े हैं। 36-मुद्रा नीर/रीर में 1.5 प्रतिशत (मई तक) की वृद्धि तो एक जैसी थी, जबकि 6-मुद्रा रीर के आधार पर 3.3 की वास्तविक वृद्धि 6-मुद्रा नीर की 1.4 प्रतिशत की वृद्धि से कम रही जो कि भारत और विश्व की प्रमुख विकसित अर्थव्यवस्थाओं के बीच ऊँचे मुद्रास्फ़ीतीय अंतराल को दर्शाता है।
23. 2010-11 की केंद्र सरकार की 3,45,010 करोड़ रुपए की बजटित निवल बाजार उधारियों में से, लगभग 38.5 प्रतिशत (1,32,900 करोड़ रुपए) मध्य –जुलाई 2010 तक पूरा कर लिया गया। 35,000 करोड़ रुपए की बजटित राशि की तुलना में 3-जी व बीडब्ल्यूए स्पेक्ट्रम नीलामियों से वास्तविक वसूली 1,06,000 करोड़ रुपए की रही जो कि जीडीपी के एक प्रतिशत से अधिक की आमद हुई। तथापि, यह सुनिश्चित करना महत्त्वपूर्ण है कि एक प्रतिशत की यह एकबारगी वृद्धि, राजकोषीय समेकन की दिशा में महत्त्वपूर्ण प्रयासों को शिथिल न कर दे।
24. 2010-11 के पहले दो महीनों के दौरान निर्यात और आयात दोनों में बढ़ोत्तरी हुई जबकि गत वर्ष इसी अवधि में इनमें कमी आई थी। व्यापार घाटा अप्रैल-मई 2010 के दौरान बढ़कर 21.7 बिलियन अमेरिकी डॉलर रहा जबकि पिछले वर्ष इसी अवधि में यह 14.4 बिलियन अमेरिकी डॉलर था जिससे देशी कार्यकलापों में लगातार वृद्धि का पता चलता है।
II. परिदृश्य और आकलन
वैश्विक परिदृश्य
वैश्विक वृध्दि
25. अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ़) ने अपने वर्ल्ड इकोनामिक आउटलुक के जुलाई अपडेट में पहली तिमाही की मजबूत वृद्धि दरों के आधार पर विश्व की अर्थव्यवस्था की वृद्धि के संबंध में अप्रैल में किए अपने 4.2 प्रतिशत के आकलन को बढ़ाकर 4.6 कर दिया है। तथापि, जैसा कि पहले बताया गया है, हाल के आँकड़ों एवं विश्लेषण से वैश्विक वृद्धि की गति के मंद पड़ने का पता चलता है और ऐसी आशंका है कि 2010 की दूसरी छमाही में वैश्विक वृद्धि पहली छमाही की तुलना में धीमी पड़ सकती है।
मुद्रास्फीति
26. आर्थिक विकास की तरह मुद्रास्फ़ीति की चाल भी दुनिया भर में अलग-अलग रही। विकसित अर्थव्यवस्थाओं में मुद्रास्फ़ीति के परिदृश्य को बनाने में ऊँची बेरोजगारी, क्षमता उपयोग में कमी और वित्तीय क्षेत्र के बारे में फ़िर से आई अनिश्चितता ने योगदान दिया। विकसित अर्थव्यवस्थाओं में समग्र मुद्रास्फ़ीति जनवरी-मार्च 2010 में ऊपर बढने के बाद से नरम पड़ गई। मुद्रास्फ़ीतीय प्रत्याशाएं भी सुस्थिर रहीं; बल्कि कुछ विकसित अर्थव्यवस्थाओं में अपस्फ़िति को लेकर चिंताएं फ़िर से सर उठाने लगीं। इसके विपरीत, उभरती बाजार अर्थव्यवस्थाओं में हुई अपेक्षाकृत तेज रिकवरी के साथ-साथ कीमतें भी तेजी से बढ़ी हैं।
27. ध्यान देने वाली बात यह है कि, वैश्विक रिकवरी की रफ़्तार के बारे में बढ़ती हुई अनिश्चितता के साथ-साथ, वैश्विक ऊर्जा और वस्तु की कीमतें कुछ कम हुई है। चीन की अर्थव्यवस्था के धीमे पड़ने से इस ट्रेंड को बल मिला है। फलत: उम्मीद है कि अगले कुछ महीनों में वैश्विक मुद्रास्फ़ीतीय दबाव कम रहेंगे।
घरेलू परिदृश्य
आर्थिक वृद्धि
28. अप्रैल 2010 से भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि-संभावनाएं बेहतर हुई है। हालांकि समग्र तौर पर वर्षा दीर्घावधि औसत (एलपीए) से 14% नीचे रही है, गतवर्ष की तुलना में मानसून बेहतर रहा है। यदि जितना अनुमान (एलपीए का 102%) लगाया गया है, मानसून का प्रदर्शन भी वैसा ही रहे तो ग्रामीण क्षेत्रों में मांग बढ़ेगी। इससे औद्योगिक क्षेत्र के प्रदर्शन को और गति मिलेगी जो अक्तूबर 2009 से ही अच्छा विकास कर रहा है।
29. अक्तूबर 2009 में जो निर्यात वृद्धि सकारात्मक रही, आगे के महीनों में उसमें और तेजी आयी, जबकि यूरो क्षेत्र में सरकारी ऋण समस्या के कारण बाहरी मांग की संभावनाओं के संबंध में चिंता थी। 2009-10 की दूसरी छमाही से सर्विस सेक्टर के कार्यकलापों में भी उछाल देखा जा रहा है। विभिन्न सेवाओं के अग्रणी सूचक उल्लेखनीय उन्नति दर्शा रहे हैं।
30. कॉरपोरेट सेक्टर की बिक्री और लाभ-अर्जकता में हुई वृद्धि से भी रिकवरी की मजबूती का पता भी चलता है। माल व स्टॉक के फिर से भरे जाने के अलावा सभी क्षेत्रों में निवेश की इच्छा कार्य रुप में बदल रही है, विशेष रुप से टेलिकॉम और धातुओं में। वाणिज्य क्षेत्र द्वारा बैंकों और बैंकों से इतर स्रोतों से संसाधन के जुगाड़ और चालू खाते के बढ़ने से भी वृद्धि की मजबूत गति का पता चलता है।
31. वृद्धि के घरेलू कारक सुदृढ़ हैं। फिर भी यदि वैश्विक रिकवरी धीमी पड़ जाती है तो निर्यात, फाइनेसिंग और विश्वास के सामान्य माध्यमों से होकर इसका असर भारत समेत सभी उभरती बाजार अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ेगा।
32. मानसून में अब तक हुई प्रगति और विश्व स्तरपर समष्टि आर्थिक परिदृश्य को देखते हुए, नीतिगत संदर्भ में, 2010-11 की वास्तविक जीडीपी वृद्धि की आधार प्रत्याशा (बेसलाइन प्रोजेक्शन) को अप्रैल 2010 के नीति वक्तव्य में इंगित किये गये 8.0 प्रतिशत से बढ़ाकर 8.5 प्रतिशत कर दिया गया है,(चार्ट 1)। ऊपर की ओर का यह संशोधन मुख्यत: बेहतर औद्योगिक उत्पादन और सेवा क्षेत्र पर पड़नेवाले इसके अनुकूल प्रभाव को देखते हुए और वैश्विक परिस्थितियों को ध्यान में रखकर किया गया है।
33. 2010-11 के संबंध में रिज़र्व बैंक का आर्थिक विकास दर का पूर्वानुमान अपने प्रोफेशनल फ़ोरकास्टर्स सर्वेक्षण और अन्य एजेंसियों के मध्यवर्ती विकास का है। यह नोट किया जाए कि कैलेंडर 2010 में भारत में विकास के संबंध में आईएमएफ का 9.4% का पूर्वानुमान बाज़ार मूल्यों पर आधारित है जबकि रिज़र्व बैंक के अनुमान तथा अन्य अनुमान जीडीपी के कारक लागत (फैक्टर कॉस्ट) पर आधारित है। इस कारण के सामंजस्य के बाद आईएमएफ और दूसरे अनुमान तुलनात्मक हैं।
मुद्रास्फीति
34. थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) पर आधारित मुद्रास्फीति फरवरी 2010 में दोहरे अंकों पर पहुंच गयी और तब से वहीं बनी हुई है। खाद्य कीमतें और उपभोक्ता मूल्य की मुद्रास्फीति ऊंचाई पर हैं, परंतु अब मांग पक्ष के कारकों के चलते मुद्रास्फीति में अधिक तेजी आई है।
35. अप्रैल 2010 के अपने नीति वक्तव्य में रिज़र्व बैंक ने मार्च 2011 के थोक मूल्य सूचकांक की आधार प्रत्यशा को 5.5 प्रतिशत पर रखा था। बाद में कई नियंत्रित/नियमित वस्तुओं जैसे कि पेट्रोलियम पदार्थ, लौहधातु और बिजली के मूल्यों में बढ़ोत्तरी हुई है। दीर्घकालिक राजकोषीय समेकन और ऊर्जा संरक्षण की दृष्टि से हाल मे पेट्रोलियम पदार्थों के प्रशासित मूल्यों को विनियमन से अंशत: मुक्त करना और कीमत बढ़ाना स्वागत योग्य है। फ़िर भी अल्पावधि में इसका मुद्रास्फीतीय प्रभाव पड़ेगा। यदि कच्चे तेल की वैश्विक कीमतों में स्थिरता रहे मानते हुये भी, मुद्रास्फीति पर इसका तत्काल प्रभाव डब्ल्यूपीआइ मुद्रास्फीति पर लगभग एक प्रतिशत अंक के बराबर होगा, तथा प्रभावों का दूसरा दौर आगे आनेवाले महीनों में सामने आएगा।
36. किसानों को प्रोत्साहन देने के लिए कुछ कृषिगत पण्यों के न्यूनतम समर्थन मूल्यों (एमएसपी) में भी वृद्धि की गयी है। खाद्य मूल्य मुद्रास्फीति वर्ष भर से उच्च स्तर पर बनी हुई है, जिसका कारण कुछ वस्तुओं जैसे कि दूध, दाल और सब्जियों में संरचनात्मक बाधाएं है। जून 2010 के पहले पखवाड़े में किया गया रिज़र्व बैंक का तिमाही मुद्रास्फीति प्रत्याशा सर्वे यह दर्शाता है कि अल्पावधि मुद्रास्फीति प्रत्याशाओं में कुछ वृद्धि हुई है।
37. आगे, मुद्रास्फीति का परिदृश्य निम्नलिखित कारकों से प्रभावित होगा। पहला, दक्षिण-पश्चिम मानसून 2010 की शेष अवधि में स्थानिक और सामयिक बारिश निर्णायक होगी। खरीफ़ की अच्छी फसल से अल्पावधि खाद्य मूल्य मुद्रास्फीति को कम करने में सहायता मिलेगी। दूसरा, पिछले कुछ हफ्तों से वैश्विक विकास दर के कम होने के मद्देनज़र वैश्विक ऊर्जा और वस्तुओं की कीमतें नरम होने के साफ संकेत दे रही हैं। यदि ऊर्जा कीमतों का घटना जारी रहा तो इससे हाल में ईंधन की मूल्यवृद्धि से हुए मुद्रास्फीतिकारी प्रभाव पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। आगे, कई क्षेत्रों में निष्क्रिय पड़ी वैश्विक क्षमता के चलते प्रतिस्पर्धात्मक आयात शुरु होगा जिससे घरेलू कीमतों की बढ़ती रफ्तार में कमी आएगी। तीसरा, विकास के घरेलू कारकों के मजबूत होने के फलस्वरुप मांग पक्ष से दबाब पड़ रहा है।
38. उभरती हुई घरेलू और बाहरी परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए मार्च 2011 के लिए डब्ल्यू पी आई मुद्रास्फीति की आधार प्रत्याशा को अप्रैल पॉलिसी वक्तव्य में दर्शाये गये 5.5 प्रतिशत से बढ़ाकर 6.0 प्रतिशत कर दिया गया है (चार्ट 2)
39. रिज़र्व बैंक कीमतों में स्थिरता और मुद्रास्फीतीय प्रत्याशाओं को स्थिर करने का प्रयास करेगा। इन उद्वेश्यों की पूर्ति के लिए रिज़र्व बैंक उभरती समष्टि आर्थिक परिस्थिति के संदर्भ में समग्र मुद्रास्फीति और इसके घटकों के पृथक माप पर नजर रखेगा।
40. वर्तमान मुद्रास्फीति परिदृश्य जो भी हो, यह देखना महत्त्वपूर्ण है कि पिछले दशक (2000-01 से 2009-10) में थोक मूल्य सूचकांक और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक दोनों के अनुसार मापी गयी मुद्रास्फीति की औसत दर लगभग 7.5 प्रतिशत वाले ऐतिहासिक ट्रेंड रेट से घटकर 5.0 प्रतिशत के आसपास रह गयी है इस बदलाव में कई कारकों का योगदान है। मुद्रास्फीति को कम और स्थिर रखने को प्रतिबद्ध मौद्रिक नीति इन कारकों में से एक है। मौद्रिक नीति की विश्वसनीयता के लिए यह रिकॉर्ड एक महत्त्वपूर्ण आधार है और अधिक सामान्य तौर पर, मुद्रास्फीति प्रबंधन का एक व्यापकतर ढाँचा है। इस पृष्ठभूमि में मौद्रिक नीति, मुद्रास्फीति प्रत्याशा को 4.0 - 4.5 प्रतिशत के रेंज में बनाए रखने का कार्य करेगी। यह वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ भारत के व्यापक तौर पर जुड़ने के परिप्रेक्ष्य में 3.0 प्रतिशत मुद्रास्फीति के मध्यावधि उद्देश्य के अनुरुप होगा।
मौद्रिक समुच्चय
41. वर्तमान वर्ष दर वर्ष मुद्रा आपूर्ति (एम3) की 15.3 प्रतिशत की वृद्धि 17.0 प्रतिशत के सांकेतिक अनुमान से नीचे है, पर 22.3 प्रतिशत की खाद्येतर ऋण वृद्धि 20.0 प्रतिशत के सांकेतिक अनुमान से कुछ अधिक रही। ऐसी अपेक्षा है कि उच्चतर वृद्धि के अनुमान होने पर भी मौद्रिक समुच्चय उसी पथ पर आगे बढ़ेगे जैसा कि अप्रैल के नीति वक्तव्य में दर्शाया गया है। तदनुसार, 2010-11 के एम3 और खाद्येतर ऋण वृद्धि अनुमान क्रमश: 17 प्रतिशत और 20 प्रतिशत पर रखे गए है। हमेशा की तरह, ये संख्याएं सांकेतिक अनुमान है पर लक्ष्य नहीं है।
जोखिम के कारक
42. उपर्युक्त समष्टि आर्थिक और मौद्रिक अनुमानों के साथ कई ऊर्ध्वपक्षी और अधोपक्षी जोखिम जुड़े हुए है।
43. मुख्य खतरा विश्व के आर्थिक परिदृश्य से जुड़ा हुआ है और इसके दो पहलू हैं। पहला, यदि वैश्विक रिकवरी लड़खड़ाती है, जिसका कि ख़तरा अप्रैल 2010 की पॉलिसी घोषणा के बाद बढ़ गया है, तो उभरती बाज़ार अर्थव्यवस्थाओं के प्रदर्शन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। विकसित अर्थव्यवस्थाओं से भारत के व्यापार संबंध अन्य प्रमुख उभरती बाज़ार अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में काफी कम है, परंतु वैश्विक व्यापार में किसी भी व्यापक मंदी का असर विनिर्माण और सेवा जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों पर पड़ेगा।
44. तथापि, ज्यादा अहम जोखिम, पूंजी प्रवाह में मंदी की संभावनाएं आने को लेकर है। भारत में तेज रिकवरी से चालू खाता घाटा बढ़ गया है क्योंकि निर्यात की अपेक्षा आयात तेजी से बढ़े हैं। यदि निर्यात धीमा पड़ भी जाए, तब भी घरेलू विकास के चलते आयात में उछाल जारी रहेगा जिससे व्यापार घाटा बढ़ेगा। तथापि, वैश्विक मंदी में दुनिया भर के निवेशकों में जोखिम से बचने की प्रवृत्ति के चलते भारत जैसी उभरती बाज़ार अर्थव्यवस्थाओं में पूंजी का प्रवाह काफी हद तक घट सकता है। यह चालू खाता घाटा और निवल पूंजी प्रवाह के बीच पर्याप्त बफर को तो कम करेगा ही, इससे घरेलू निवेश भी प्रभावित होगा जो कि विकास की ऊँची दर हासिल करने और उसे बनाए रखने के लिए बहुत जरुरी है।
45. यह मानी हुई बात है कि पूंजी प्रवाह का जोखिम दोनों तरफ़ चलता है। वैश्विक अर्थव्यवस्था की वर्तमान स्थिति को देखते हुए यह संभावना है कि विकसित अर्थव्यवस्थाएं कुछ और समय के लिए उदार मौद्रिक नीतियों को बनाए रखें। विकास की अच्छी संभावना वाली ईएमई, जिसमें भारत भी है, के लिए यह बड़े पूंजी प्रवाह को ट्रिगर कर सकती है। अर्थव्यवस्था की अवशोषण क्षमता से अधिक पूंजी प्रवाह, मौद्रिक और विनिमय दर के प्रबंधन के लिए एक चुनौती होगी। इसका एसेट्स के मूल्यों पर भी असर पड़ेगा। इस परिदृश्य में, बढ़ता चालू खाता घाटा प्रवाह के एक बड़े अंश को अवशोषित करने में सहायक होगा।
46 मुद्रास्फीति के मोर्चे पर, वर्ष 2010-11 के मध्य के आसपास घरेलू मुद्रास्फीति की नरमी की संभावनाएं खाद्य कीमतों में प्रत्याशित कमी पर निर्भर हैं। अब तक वर्षा आमतौर पर पर्याप्त हुई है, जो कृषि क्षेत्र के लिए अच्छी संभावनाओं का संकेत है। परंतु इस मौसम को समाप्त होने में अभी दो माह हैं और अपर्याप्त वर्षा के प्रतिकूल प्रभाव का खतरा अभी भी ख़ास क्षेत्रों और फसलों पर बना हुआ है।
47. तथापि, मुद्रास्फीति पर नियंत्रण के लिहाज से देखें तो वैश्विक परिदृश्य कुछ अनुकूल लहरें भी पैदा कर सकता है। यदि वैश्विक विकास की गति धीमी हुई तो इससे ऊर्जा और पण्यों(कमोडिटिज़) की कीमतें के घटने में मदद मिलेगी। कई क्षेत्रों में अनुप्रयुक्त वैश्विक क्षमता से भी कीमतों पर भी दबाब कम होगा।
III - नीति का रुझान
48. अक्तूबर 2009 में अपनी नीति के रुझान में बदलाव लाने के संकेत देने से लेकर अब तक, रिज़र्व बैंक ने आरक्षित नकदी निधि अनुपात (सीआरआर) में कुल 100 आधार अंक और एलएएफ के तहत रेपो और रिवर्स रेपो, प्रत्येक में 75 आधार अंकों की बढ़ोतरी की। विश्व में बनी हुई अनिश्चितता के व्यापक संदर्भ में भारत की विशिष्ट विकास-मुद्रास्फ़ीति संतुलन के अनुसार मौद्रिक नीति के नपे तुले कदम उठाए गए हैं।
49. इस प्रकार, 2010-11 की मौद्रिक नीति का रूख़ तीन प्रमुख बातों द्वारा प्रभावित है:
50. पहला, देशी अर्थव्यवस्था की रिकवरी के पैर पूरी तरह जम चुके हैं और इसमें मजबूती आ रही है। कमजोर वैश्विक वृद्धि और कृषि की ओर से मामूली योगदान के बावजूद 2009-10 में 7.4 प्रतिशत की विकास दर भारत की अर्थव्यवस्था की सुदृढ़ता का प्रमाण है। जीडीपी विकास अनुमान में (अप्रैल 2010 के 8.0 प्रतिशत ऊपरी रुझान से) 8.5 प्रतिशत का रिज़र्व बैंक का बढ़ा हुआ संशोधन बताता है कि अर्थव्यवस्था संकट से पहले के अपने विकास पथ पर अच्छी वापसी कर रही है। इतना होने पर भी, वैश्विक रिकवरी की स्थिर गति को लेकर अनिश्चितता बढ़ रही है, जिसका कि भारत समेत ईएमईज़ पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की संभावना है।
51. दूसरा, मुद्रास्फ़ीतीय दबाव उग्र और व्यापक हो चुके हैं जिसमें मांग-पक्ष के दबाव साफ़ दिख रहे हैं। कई क्षेत्रों में क्षमतागत अवरोध दिख रहे हैं और उत्पादन करने वालों के पास कीमत तय करने की ताकत लौट रही है। मुद्रास्फ़ीतिकारी प्रत्याशाएं भी ऊँचे स्तर पर बनी हुई हैं। मुद्रास्फ़ीति के फ़ैलाव व बने रहने की प्रवृत्ति को देख़ते हुए मांग पक्ष के मुद्रास्फ़ीतीय दबावों को रोकने की जरूरत है।
52. तीसरे, नीति-गत दरों में समग्र तौर पर 75 आधार अंकों की बढ़ोत्तरी के बावजूद, वास्तविक नीति-गत दरें अर्थव्यवस्था के मजबूत विकास के अनुरूप नहीं हैं। जैसा कि पहले के नीति वक्तव्यों/समीक्षाओं में कहा गया है, नीति-गत दरों के नीचे रहने पर मुद्रास्फ़ीतीय परिदृश्य और प्रत्याशाओं को उलझा सकता है, विशेषत: तब जबकि मुद्रास्फ़ीति व्यापक हो चुकी हो। इसलिए यह आवश्यक है कि अपने नीति-गत उपायों को विकास व मुद्रास्फ़ीति परिदृश्य के अनुरूप सामान्य करने की दिशा में हम बढ़ते रहें; साथ ही, इसका ध्यान रखें कि रिकवरी से कोई छेड़छाड़ न हो।
53. इस परिप्रेक्ष्य से लिक्विडिटी की स्थिति की भूमिका अहम है। यह स्पष्ट है कि दरों के संबंध में की गई कार्रवाई से मौद्रिक नीति सबसे प्रभावकारी तभी होती है जब वित्तीय व्यवस्था में केंद्रीय बैंक द्वारा लिक्विडिटी डाली जाती है न कि तब जबकि वह अवशोषित की जा रही हो। अक्टूबर 2009 और उसके बाद से अतिरिक्त लिक्विडिटी को अवशोषित करने के हमारे क्रमिक व नपे-तुले कदमों को बाजार की उन परिस्थितियों से बल मिला जो जून 2010 की शुरुआत में उभरीं और अभी भी बनी हुई हैं। परिणामत: दैनिक कॉल मनी ब्याज दरें एलएएफ़ कॉरीडोर की ऊपरी सीमा की ओर गई हैं जो कि रेट्स के 150 आधार अंक कसे जाने के समतुल्य है। इससे सिस्टम उस बिंदु के करीब आ गया है जहाँ नितिगत दरों के बारे में की गई कार्रवाइयों की पकड़ अधिक होने की संभावना है।
54. वर्तमान बाजार परिस्थितियां बता रही हैं कि लिक्विडिटी दबाव कम तो होंगे पर सिस्टम के अभी घाटे की स्थिति (डेफ़िसिट मोड) में बने रहने की संभावना है। इसका अर्थ है कि मौद्रिक ऑपरेशनों में महत्त्वपूर्ण बदलाव जिसका सीधा संबंध हमारी कार्रवाइयों से है। घाटे की चलनिधि वाली स्थिति में, एलएएफ़ में रेपो रेट ही ऑपरेटिंग पॉलिसी रेट के रूप में उभरा है। एलएलएफ़ इस तरह से काम करती है कि सिस्टम की लिक्विडिटी जब सरप्लस से डेफ़िसिट की ओर जरा भी जाए, तो दैनिक कॉल मनी दरें बारी-बारी से रिवर्स रेपो रेट और रेपो रेट को छूती हैं। इस प्रकार, कॉल दरों का उतार-चढ़ाव एलएएफ़ कॉरिडोर के दायरे में रहता है।
55. पॉलिसी ब्याज दरों के कॉरीडोर के समुचित दायरे को तय करने का कोई अनूठा तरीका नहीं है। पर इसके मार्गदर्शी सिद्धांत ये हैं: (i) इसमें इतनी व्यापकता हो कि बाजार के भागीदारों को अपना सरप्लस फ़ंड केंद्रीय बैंक के पास रखने को अनुचित प्रोत्साहन न हो (ii) इतना भी व्यापक न हो कि ब्याज दरों में ज्यादा उतार चढ़ाव से पॉलिसी संकेत असंतुलित हो जाए । इसलिए चुनौती यह है कि सही संतुलन कैसे कायम किया जाए।
56. सिस्टम की लिक्विडिटी जब एकतरफ़ा सरप्लस मोड से दुतरफ़ा वाली स्थिति की ओर जाने लगे तो मौद्रिक संप्रेषण के प्रभावकारी होने पर इसका असर होगा। तदनुसार, रिज़र्व बैंक द्वारा मौद्रिक नीति की वर्तमान संचालन पद्धति, जिसमें एलएएफ़ भी शामिल है, की समीक्षा के लिए एक कार्यदल गठित करने का प्रस्ताव है।
57. उपर्युक्त पृष्ठभूमि में रिज़र्व बैंक की मौद्रिक नीति के रुख का उद्देश्य होगा:
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मुद्रास्फीति को रोकना और मुद्रास्फीति की प्रत्याशाओं को स्थिर करना और साथ ही मुद्रास्फ़ीतीय दबावों के बढ़ने पर उपयुक्त कदम उठाने के लिए तैयार रहना।
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मूल्य, उत्पादन और वित्तीय स्थिरता के अनुरूप ब्याज दर व्यवस्था बनाए रखना।
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चलनिधि को व्यापक तौर पर संतुलित रखने के लिए इसका सक्रिय प्रबंधन करना ताकि अतिरिक्त चलनिधि नीति दर कार्रवाई के प्रभाव को कमजोर न कर सके ।
मौद्रिक नीति की मध्यावधि तिमाही समीक्षा
58. वर्तमान में, निर्धारित नीति घोषणाएं तीन महीने में एक बार की जाती है। तथापि, तेजी से उभरती-बदलती समष्टि आर्थिक स्थिति में नीति की समीक्षाओं के बीच तिमाही का अंतराल अत्यधिक हो सकता है। हाल के वर्षो में, ऐसे कई मौके (अप्रैल, जून और सितंबर-दिसंबर 2008; जनवरी और मार्च 2009; तथा मार्च और जुलाई 2010) आए हैं, जब समष्टि आर्थिक घटनाक्रम के मद्देनज़र रिज़र्व बैंक को निर्धारित समय से पहले या उसके अलावा नीति संबंधी कार्रवाई करनी पड़ी। ऐसे मामले एक ओर जहाँ तिमाही समय-सीमा के अनुशासन के लिए चुनौती के समान होते है,वे यह भी रेखांकित करतें है कि हस्तक्षेप में लचीलेपन की आवश्यकता है। विश्व के कई प्रमुख केद्रीय बैंक अधिक बारंबारता से मौद्रिक नीति घोषणाएं करते हैं, वर्ष में सामान्यतया 8 से 12 घोषणाएं। अत:ऐसा प्रस्ताव है कि उस अनौपचारिक आंतरिक प्रक्रिया को औपचारिक किया जाए जो पहले से ही चली आ रही है।
59.तदनुसार, रिज़र्व बैंक अब प्रत्येक तिमाही समीक्षा के बाद लगभग डेढ़ महीने के अंतराल पर मध्यावधि तिमाही समीक्षा करेगा। कार्यक्रम के अनुसार मध्यावधि तिमाही समीक्षाएं जून, सितंबर, दिसंबर और मार्च में प्रेस प्रकाशनी (रिलीज़) के रूप में होंगी जिसमें कार्रवाई करने या यथास्थिति बनाए रखने का औचित्य बताया जाएगा।
60. मध्यावधि तिमाही समीक्षाओं का उद्देश्य आर्थिक स्थितियों के अपने आकलन के बारे में अधिकाधिक बार बताना है। इन्हें औपचारिक बनाने के पीछे उद्देश्य है कि निर्धारित समय के अलावा की जाने वाली नीति-गत कार्रवाइयों में चौंका देनेवाला तत्व न रहे। वैसे, हमेशा की तरह, रिज़र्व बैंक के पास उभरती-बदलती समष्टि आर्थिक घटनाक्रमों को देखते हुए तत्काल और पूर्वोपायी नीति-गत कार्रवाई करने का विकल्प बना रहेगा।
IV मौद्रिक उपाय
61. वर्तमान मूल्यांकन के आधार पर और भाग III में बताए गए नीतिगत रुझान के अनुसार रिज़र्व बैंक निम्नलिखित नीतिगत उपायों की घोषणा करता है:
बैंक दर
62. बैंक दर को 6.0 प्रतिशत पर बनाए रखा गया है।
रेपो दर
63. यह निर्णय लिया गया है कि:
रिवर्स रेपो दर
64. यह निर्णय लिया गया है कि :
प्रारक्षित नकदी निधि अनुपात
65. अनुसूचित बैंकों के आरक्षित नकदी निधि अनुपात (सीआरआर) को उनके निवल मांग और देयताओं (एनडीटीएल) के 6.0 प्रतिशत पर बनाए रखा गया है।
प्रत्याशित परिणाम
66. मौद्रिक नीति कार्रवाइयों के कार्रवाइयों के अपेक्षित परिणाम:
ए. मांग दबाबों और मुद्रास्फीति की प्रत्याशाओं को नियंत्रित करने से मुद्रास्फीति में कमी आएगी।
बी. विकास को जारी रखने लायक वित्तीय परिस्थितियां बनी रहेंगी।
सी. ऐसी चलनिधि परिस्थितियां बनेंगी जिनसे नीति-गत कार्यो का और अधिक प्रभावी संप्रेषण हो।
डी.एकसीमितदायरेमेंअल्पकालिकदरोंमेंअस्थिरताकमहोगी।
मौद्रिक नीति 2010-11 की मध्य तिमाही समीक्षा
67. वर्ष 2010-11 की मौद्रिक नीति की अगली मध्य तिमाही समीक्षा की घोषणा 16 सितंबर 2010 को प्रेस विज्ञप्ति के माध्यम से की जाएगी।
मौद्रिक नीति 2010-11 की दूसरी तिमाही समीक्षा
68. विकासात्मक और विनियामक नीतियों सहित, मौद्रिक नीति 2010-11 की दूसरी तिमाही समीक्षा 2 नवंबर 2010 को की जाएगी ।
मुंबई
27 जुलाई 2010 |