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हमारा इतिहास

किसी भी संस्था के इतिहास का उद्देश्य उस संस्था के कार्य, घटनाओं, नीतियों, संगठन के संस्थागत विकास को दर्ज करना, क्रमबद्ध करना व संकलित करना तथा उसका एक व्यापक, प्रामाणिक और वस्तुनिष्ठ अध्ययन प्रस्तुत करना है। केंद्रीय बैंक का संस्थागत इतिहास, कुछ मायनों में देश का मौद्रिक इतिहास है, जो नीतियों, कारणों, गलतियों, विचार प्रक्रियाओं, निर्णय प्रक्रियाओं और राजनीतिक अर्थव्यवस्था के व्यापक कैनवास को ठोस और मानवीय संदर्भों में लिपिबद्ध करता है।

इस प्रकार भारतीय रिज़र्व बैंक का इतिहास न केवल भारत में केंद्रीय बैंकिंग के विकास के पदचिह्नों को ढूँढ़ता है, बल्कि यह एक संदर्भ का कार्य करता है और भारत के मौद्रिक, केंद्रीय बैंकिंग व विकासात्मक इतिहास के साहित्य में एक महत्वपूर्ण योगदान देता है। हमने अब तक अपने इतिहास के चार खंड प्रकाशित किए हैं।

खंड 1
(1935-1951)

भारतीय रिज़र्व बैंक की स्थापना 1 अप्रैल, 1935 को हुई थी। यह वैसे कुछ केंद्रीय बैंकों में से है जिन्होंने अपनी संस्था का इतिहास लिखा। अब तक, बैंक ने अपने इतिहास के चार खंड प्रकाशित किए हैं। 1935 से 1951 तक की अवधि के लिए पहला खंड 1970 में प्रकाशित किया गया था। इसमें भारत में एक केंद्रीय बैंक की स्थापना के लिए की गई पहल का विवरण दिया है और इसमें रिजर्व बैंक के प्रारंभिक वर्ष शामिल हैं। यह द्वितीय विश्व युद्ध और स्वतंत्रता के बाद के दौर की उन चुनौतियों पर प्रकाश डालता है जिनका सामना रिजर्व बैंक और सरकार को करना पड़ा ।

खंड 2
(1951-1967)

1951 से 1967 की अवधि से संबंधित दूसरा खंड 1998 में प्रकाशित किया गया था। इस अवधि में भारत में योजनाबद्ध आर्थिक विकास के युग की शुरुआत हुई। इस खंड में देश की आर्थिक और वित्तीय संरचना को मजबूत, संशोधित और विकसित करने के लिए उठाए गए कदमों का विवरण दिया गया है। मौद्रिक प्राधिकारी के रूप में रिज़र्व बैंक की भूमिका के अलावा, यह भारत में कृषि और दीर्घकालिक औद्योगिक ऋण के लिए एक संस्थागत बुनियादी ढाँचा स्थापित करने के प्रयास पर प्रकाश डालता है। इस खंड में देश के सामने आई बाह्य भुगतान समस्याओं और 1966 के रुपये के अवमूल्यन को सटीक ढंग से समेटा गया है।

खंड 3
(1967-1981)

18 मार्च 2006 को माननीय प्रधान मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने रिज़र्व बैंक के इतिहास का तीसरा खंड जारी किया जो 1967 से 1981 तक की अवधि से संबंधित है। 1969 में चौदह बैंकों का राष्ट्रीयकरण इस अवधि की एक महत्वपूर्ण घटना थी, जिससे देश के भीतरी इलाकों में बैंकिंग का प्रसार किया गया। बैंकिंग में सुरक्षा और विवेक के विषयों को भी प्रमुखता मिली। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, 1971 में ब्रेटन वुड्स प्रणाली के परित्याग के कारण भारत व अन्य विकासशील देशों को गंभीर चुनौतियों का सामना करना पडा। इस खंड में रिज़र्व बैंक और सरकार के बीच समन्वय के मामलों का भी उल्लेख किया गया है।

खंड 4
(1981-1997)

17 अगस्त 2013 को रिज़र्व बैंक के इतिहास के चौथे खंड का विमोचन भी भारत के माननीय प्रधान मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा किया गया। इसमें 1981 से 1997 तक के 16 साल की घटनाओं का उल्लेख है और इसे दो भागों, भाग ए और भाग बी में प्रकाशित किया गया है जिसे आदर्शत: एक साथ पढ़ा जाना चाहिए। भाग ए, प्रतिबंधों के दौर से लेकर प्रगतिशील उदारीकरण तक भारतीय अर्थव्यवस्था के परिवर्तन पर केंद्रित है। 1980 के दशक की विशेषता थी बजटीय घाटे के स्वत: मुद्रीकरण के साथ विस्तारी राजकोषीय नीति जिसका दबाव मौद्रिक नीति के संचालन पर पड़ा। इसी प्रकार, अत्यधिक विनियमित बैंकिंग व्यवस्था का कार्यकुशलता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। घरेलू समष्टि आर्थिक असंतुलन के साथ बिगड़ती बाहरी परिस्थितियां जुड़ गईं तो 1991 का भुगतान संतुलन (बीओपी) संकट पैदा हुआ। इसके बाद के सुधारों से न केवल अर्थव्यवस्था में बल्कि केंद्रीय बैंकिंग में भी दूरगामी परिवर्तनों की शुरुआत हुई। इस खंड के भाग बी में संरचनात्मक और वित्तीय क्षेत्र के सुधारों के कार्यान्वयन, राजकोषीय सुधार और स्वचालित मुद्रीकरण की चरणबद्ध समाप्ति; सरकारी प्रतिभूति बाजार का विकास; और मुद्रा, प्रतिभूतियों और विदेशी मुद्रा बाजारों के उत्तरोत्तर एकीकरण को प्रस्तुत किया गया है। इसमें उदारीकरण के साथ बैंकिंग में बदलाव और ऋण सुपुर्दगी (क्रेडिट डिलिवरी) में सुधार को भी शामिल किया गया है। इसी अवधि में, रिज़र्व बैंक को प्रतिभूति घोटाले का समना करना पड़ा, जिसे देखते हुए बेहतर नियंत्रण प्रणाली शुरु हुई और भुगतान और निपटान प्रणालियों को मजबूत किया गया ।




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