स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, सरकार ने स्वतंत्र भारत के संस्थानों के लिए कई सार्वजनिक भवनों की योजना बनाई।
इस संदर्भ में, प्रधान मंत्री, पंडित जवाहरलाल नेहरू ने सुझाव दिया कि सार्वजनिक इमारतें, जिनमें से कइयों के ढाँचे बड़े आकार के थे,
का उपयोग भारतीय कलाकारों के कार्य को प्रोत्साहित करने के लिए किया जाए’ और मूर्तिकारों, चित्रकारों,
डिजाइनरों आदि को सहयोग के लिए कहा जाए। नेहरू ने कहा कि कला की लागत ‘…इमारतों की कुल लागत की तुलना में काफ़ी कम होनी चाहिए।
लेकिन इससे भारतीय कलाकारों को बहुत प्रोत्साहन मिलेगा और मुझे लगता है जनता इसका बहुत स्वागत करेगी।' वित्त सचिव, श्री के. जी. अंबेगांवकर,
ने तत्कालीन गवर्नर बी रामा राउ को नोट की एक प्रति भेजी। यह वह समय था जब रिजर्व बैंक नई दिल्ली, मद्रास और नागपुर में नई इमारतों के
निर्माण / इन पर चिंतन की प्रक्रिया में था। तदनुसार, बैंक ने इस प्रस्ताव की जांच करने और इस विषय पर सुझाव देने के लिए श्री जे डी गोंधलेकर,
जे.जे.स्कूल ऑफ आर्ट्स, बॉम्बे के डीन, मेसर्स मास्टर साठे एंड भूता के श्री जी.एम. भूता तथा बैंक के सहायक मुख्य लेखाकार श्री आर.डी.पुसलकर
की एक समिति बनाई।
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कला, केंद्रीय बैंक, और आम जनता 1
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कला, केंद्रीय बैंक, और आम जनता 2
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अन्य योजनाओं में, समिति ने सुझाव दिया कि नई दिल्ली में आरबीआई कार्यालय के मुख्य द्वार के दोनों ओर मूर्तियां बनाई जाएं,
जिसमें से एक “उद्योग से समृद्धि” और दूसरी “कृषि से समृद्धि” का भाव दर्शाए। केंद्रीय बोर्ड के तत्कालीन निदेशक जे.आर. डी.
टाटा के कहने पर, प्रसिद्ध कला समीक्षक व पारखी कार्ल खंडालावाला के विचार पूछे गए। उन्होंने ही सुझाव दिया कि बैंक "यक्ष" और "यक्षिणी"
की आकृतियों पर विचार करे। उनकी सलाह पर, नई दिल्ली कार्यालय के अग्रभाग के अलंकरण के लिए निविदा का आमंत्रण नौ कलाकारों को दिया गया।
आमंत्रित नौ कलाकारों में से, पाँच ने अपने प्रस्ताव प्रस्तुत किए और उनमें से केवल एक ने मॉडल और रेखाचित्र (स्केच) प्रस्तुत किए।
श्री राम किंकर बैज के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया गया। पुरुष ‘यक्ष’ को मथुरा संग्रहालय के ‘परखम यक्ष’ की मूर्ति से लिया गया और नारी
यक्षिणी को कलकत्ता संग्रहालय के “बिसनगर यक्षिणी” से लिया गया। श्री खंडालावाला का मानना था कि ये विशाल आकृतियां हमारे नई दिल्ली
कार्यालय की वास्तुकला विशेषताओं के बड़ी अनुरूप होंगी।
किसान-श्रमिक समृद्धि के विषय जहाँ नेहरू के 'वैज्ञानिक दृष्टि' पर आधारित थे, यक्ष और यक्षिणी के रूप में इसकी अभिव्यक्ति परंपरागत संवेदनाओं को भा गई
- हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार यक्ष अर्ध-देवों के एक वर्ग से संबंधित हैं और वे धन के देवता 'कुबेर' के सेवक के रूप में दर्शाए गए हैं।
यक्षों का कार्य कुबेर की वाटिकाओं और खजानों पर पहरा देना है। यक्षिणी एक नारी यक्ष है। नोट जारी करने का एकमात्र अधिकारी तथा केंद्र व
राज्य सरकार का बैंकर होने के कारण बैंक की तुलना कुबेर - धन के स्वामी -के साथ की जा सकती है तथा यक्ष और यक्षिणी की प्रतिमाएं बैंक
के खजाने की रखवाली का दायित्व ले सकती हैं। आधुनिक संदर्भ में, इन आकृतियों को उद्योग और कृषि के प्रतीक के रूप में भी देखा जा सकता है,
ऐसे विषय जिनके साथ देश का केंद्रीय बैंक बैंक प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ा हुआ है।
मूर्ति प्रकरण ने बैंक के अधिकारियों को खासा व्यस्त रखा, क्योंकि कलाकार राम किंकर ने सटीक गुणवत्ता के पत्थर का चयन करने में समय
लिया जिसमें स्थानों की खोज, पत्थर की क्वालिटी, इसके उत्खनन और परिवहन में समस्याओं जैसे कारण थे। इस कार्य में बहुत देरी होती जा
रही थी और कई अवसरों पर बैंक को लगा कि श्री रामकिंकर के पास उत्कृष्ट कलात्मक योग्यता भले ही हो, उनके पास इस उद्यम के लायक
प्रबंधन कौशल नहीं है। दिसंबर 1966 (जनवरी, 1967) के आसपास तराशे और पॉलिश किए जाने के बाद जब मूर्तियां तैयार हुईं, मूल आकलन
में काफी संशोधन करना पड़ा।
तथापि कहानी इतने पर ही खत्म नहीं होती। मूर्तियों को, अंतत: जब लगाए जाने का समय आया तब तक उन पर कार्य शुरू
किए दस वर्ष से अधिक हो गए थे; इस बीच समय और परिस्थितियां, देश एवं देश के नेताओं का दृष्टिकोण बदल चुका था। मूर्तियां
जब रिज़र्व बैंक के नई दिल्ली कार्यालय में लगाई जा रही थीं, तो कुछ कपटलज्जालुओं की त्योरियां चढ़ गईं; विशेषत: यक्षिणी की मूर्ति
के कारण जो अपने प्राकृतिक सौंदर्य में उकेरी गई थी।
मूर्ति का मामला राज्या सभा में में प्रो. सत्यव्रत सिद्धांतालंकार ने बड़ी बेबाकी से उठाया:
क्या निर्माण. आवास व आपूर्ति मंत्री बताएंगे:
यह व्याख्या कि ‘नग्न स्त्री’ कृषि और धन का प्रतीक है, हो सकता है मानने लायक हो, पर यह भी है कि इस पर हुए खर्च और इस कलाकृति
का परामर्श देने वाली समिति के विवरण प्रश्नों की परिधि से बाहर नहीं हो सकते।
एक ओर सामान्य धरातल पर जहाँ यक्षिणी के कारण बेचैनी थी, वहीं साप्ताहिक टेब्लॉयड ब्लिट्ज,
जो भले ही पाखंडी सोच वाला या कला के बारे में अल्पज्ञ न हो, ने मूर्तियों को अलग ही नजरिया दे डाला और
कहा कि यक्ष देखने में एक उद्योगपति सदोबा पाटिल जैसा है। “यक्ष पाटिल” के शीर्षक से ब्लिट्ज ने मूर्ति की फोटोग्राफ
देकर टिप्पणी की कि “….लेकिन कलाकार आधुनिक यक्ष के बारे में, जो अभी रिज़र्व बैंक को गार्ड कर रहा है, राम किंकर
की अवधारणा में सदोबा पाटिल से एक अद्भुत समानता दिख रही है जो देश में धन के उत्साही ‘रक्षक’ बड़े करोबारियों में से एक है…”
ब्लिट्ज वाले आलेख के बाद, यह महसूस किया गया कि मूर्तियों के कारण जो गलफ़हमियां पैदा हुई हैं, उसके लिए एक उपयुक्त प्रेस
विज्ञप्ति जारीकर तथा पर्चे बंटवाकर जनता को कला के क्षेत्र में बैंक की पहल की जानकारी दी जा सकती है; दूसरी तरफ़ यह भी महसूस किया गया
कि पर्चे (हैंडआउट्स) और प्रेस विज्ञप्तियां फ़िर से विवादों को जन्म देंगी। अंतत: सहमति मौन पर बनी। 1950 के दशक के शुरुआती वर्षों में,
जब पंडित नेहरू के मन में कला को प्रोत्साहित करने के विचार आया था, आशावाद का युग था जो साठ के संकरे दौर से अलग था जब कला को
संभवत: पृष्ठभूमि में ढकेल दिया गया था। गवर्नर पी सी भट्टाचार्य ने यह कहकर समय के नब्ज की पहचान दर्शाई कि “ सोए स्वानों को पड़ा रहने दो!
न ही पैसे ख़र्च करने के निर्णय और न ही इस परियोजना के कार्यान्वयन में विलंब को आज के संदर्भ में उचित ठहराया जा सकता है।
एक प्रेस नोट द्वारा आकृतियों के प्रतीकात्मक महत्त्व को समझाना भी व्यर्थ है। संसद में यदि और जब कोई प्रश्न उठता है, तो तदर्थ तौर पर
हम उसे संभाल लेंगे“