19वीं शताब्दी में टकसाल से ढलकर निकलने वाले सिक्कों में पाई सबसे छोटी थी।
पैसे का तृतीयांश तथा औपचारिक तौर पर आने का 12वां हिस्सा पाई के बराबर होता था।
तीन पाई का एक पैसा; चार पैसे का एक आना और 16 आने का एक रुपया।
इस प्रकार एक रुपया 192 पाइयों का होता था। (क्या आश्चर्य कि उस समय अंकगणित कइयों के पसीने छुड़ा देता था!!)
दूसरे विश्व युद्ध के बाद भारत में मुद्रास्फीति और धातुओं की कमी की स्थिति सामने आई तथा धातुओं का आयात करना पड़ा।
बढ़ती कीमतों के एसे हालात में 1942 के बाद तांबे की पाई की ढलाई बंद कर दी गई।
दस वर्ष बाद मिंट मास्टर ने प्रस्ताव भेजा कि पाई को गणतंत्र भारत में पुन: प्रचलन में लाया जाए।
लागत-लाभ का हवाला देते हुए तत्कालीन वित्त सचिव श्री के जी अंबेगांवकर ने बड़ी नम्रता से प्रस्ताव को लौटा दिया।
अंबेगांवकर, बाद में 1957 में लगभग एक महीने के लिए बैंक के गवर्नर भी बने। बैंक के पूर्व गवर्नर, सी.डी. देशमुख उस समय वित्त मंत्री थे।
“मंत्री” के रूप में उन्होंने पाई की गाथा को विराम देने वाले अंतिम शब्द लिखे।
अंबेगांवकर ने लिखा
"इस ‘नन्हे सिक्के’ को बचाने के जो साहसी प्रयास किए जा रहे हैं, उसकी प्रशंसा करता हूँ, पर अफसोस है कि,
मुझे ही,यद्यपि भारी मन से,लिखना पड़ रहा है
पाई स्मृति
छोटी या बड़ी
होंगे हम दु:खी
जब यह नन्ही बेचारी पाई
लेगी अंतिम विदाई
लागत है उस पर भारी;
होती नहीं उससे खरीदारी,
न ही व्यापार में खेल पाती पारी,
अब इसके विदा होने की आई बारी
न करें हम कोई होड़
जिलाए रखने की इसे जोड़ तोड़
न दु:ख हो न शोक हो
बस शांति से यह विदा हो
यदि माँगे आप कारण तो,
न कोई आर्तनाद हो;
पाएगी यह सम्मान वहाँ
रजत रुपया होगा साथ जहाँ!
‘मंत्री’ महोदय क्या लिखेंगे कुछ, जब पाई विदा होती सचमुच?
(के. जी अंबेगांवकर)
सचिव
12 जुलाई 1952
टिप्पणी में सी डी देशमुख ने अपनी सहमति इस प्रकार व्यक्त की
न करें हम भंग उस कांति को
संग्रहालय की उस शांति को
जीवन यात्रा जब पाती विराम
पाई करने करने जाती तब चिर विश्राम।
सी. डी. देशमुख
13 जुलाई, 1952
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