भारतीय रिज़र्व बैंक में नौकरी बड़ी प्रतिष्ठा की बात थी। अप्रैल 1935 में कामकाज प्रारंभ करने से पहले बैंक के कलकत्ता कार्यालय ने
पचास अस्थाई नौकरी की रिक्तियों का विज्ञापन दिया। जबरदस्त आवेदन आए। कथित तौर पर दस हजार से अधिक आवेदन आए थे।
मार्च 1935 के इंडियन फाइनेंस नामक जर्नल में यह नाटकीय रिपोर्ट निकली:
“ये बारिश नहीं थी, बल्कि आवेदकों की मूसलाधार झड़ी थी। कलकत्ता के सभी कोनों - बंगाल के अधिकांश मुफस्सिल स्टेशनों से आवेदन आए।
बिल्डिंग स्नातकों से ठसाठस भरी थी। सड़कों पर भीड़ इतनी भारी थी कि ट्रैफिक बाधित हुआ और जाम लग गया। जो लोग बिल्डिंग में घुसे,
वे बाहर नहीं निकल सके; उधर पूरे समय भवन में प्रवेश के लिए जोर लगा रही सड़क वाली भीड़ हाँफ़ रही थी और पसीने से तर बतर थी;
और मुझे लगता है, इस धक्के में कुछ लोग बेहोश हो गए। जिन अधिकारियों को चयन करना था, उनकी अक्ल नहीं काम कर रही थी। भीड़
खींचने वाली ऐसी ताकत कलकत्ता के अख़बारों में प्रकाशित किसी भी विज्ञापन में नहीं देखी गई थी।
घबराहट में, पुलिस बुलाई गई; और भवन व सड़क को क्लीयर करने में उनकी सहायता ली गई…”
दुर्भाग्य की बात कि नौकरी के उम्मीदवारों के लिए, नई भर्तियां कम थीं।
बैंक की स्थापना के लिए अधिकांश कर्मचारी इसमें इंपीरियल बैंक और भारत सरकार से स्थानांतरित कर लिए गए थे।
सरकारी कर्मचारी मुद्रा नियंत्रक के कार्यालय के पूर्ववर्ती कर्मचारी थे जिससे बैंक ने मुद्रा प्रबंधन और सार्वजनिक ऋण जारी करने का कार्य संभाला था।
1980 के दशक के उत्तरार्ध में, 'सरकार हस्तांतरित पेंशनरों' के खातों को देखने के लिए व्यय और बजट नियंत्रण विभाग (डीईबीसी) में
एक विशेष सेल की स्थापना की गई थी। ऐसा करते समय एक अभिलेख, दफ्तरी अब्दुल उस्मान का सामने आया, जो कि ग्राम सादीनगर,
माणिकगंज, जिला डक्का (ढाका) का, यानी अविभाजित भारत के निवासी थे। श्री अब्दुल ने 4 जून, 1885 को भारत सरकार की सर्विस ज्वाइन
की और 51 वर्ष व 29 दिनों की सेवा –जिसमें उनको सात बार सेवा विस्तार मिला - के बाद मार्च, 1939 में 75 वर्ष की आयु में बैंक से सेवानिवृत्त हुए।
उनके ‘अंतिम वेतन प्रमाणपत्र’ में 27 रुपये प्रति माह वेतन का उल्लेख था, जो वे बिना किसी वार्षिक वेतन वृद्धि के सोलह वर्षों से ले रहे थे।
ऐसा समझा जाता है कि अब्दुल उस्मान हर महीने 8 रुपये की पेंशन के साथ संतुष्ट सेवानिवृत्ति को प्राप्त हुए!
दफ्तरी - शाब्दिक अर्थ ‘ऑफिस कीपर’ – उस समय ‘नीचे के दर्जे के कर्मचारियों’ के लिए प्रयुक्त एक शब्द।
उनका काम कार्यालय की फाइलों को स्टोर करना, निकालना और उनका रखरखाव करना था। यद्यपि यह काम काफी हद तक कंप्यूटरों के हवाले हो गया है,
पर यह शब्द अभी भी प्रचलन में है और यह पद अभी भी मौजूद है।
स्रोत: भारतीय रिज़र्व बैंक का इतिहास, 1935-51, भारतीय रिज़र्व बैंक, बॉम्बे,
1970 और रिज़र्व बैंक की गृह पत्रिका (हाउस जर्नल) विदाउट रिज़र्व, अक्टूबर-दिसंबर, 1990। श्री उस्मान का किस्सा डीईबीसी के श्री
एम.के. जोशी ने विदाउट रिज़र्व को बताया।