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कार्यसंचालन

भारत में जमा बीमा का संक्षिप्‍त इतिहास

The पहली वार्षिक रिपोर्ट में डिपॉजिट इंश्योरेंस कॉरपोरेशन का कॉर्पोरेट लोगो

पहली वार्षिक रिपोर्ट की पीडीएफ फाइल (3.8 एमबी)

आज जिस रूप में हम जमा बीमा को जानते हैं, भारत में उसकी शुरुआत 1962 में हुई। इस तरह की योजना शुरू करने वाला भारत दुनिया का दूसरा देश था - 1933 में संयुक्त राज्य अमेरिका इसे सबसे पहले शुरू करने वाला देश था। 19 वीं और 20 वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों (1913-14) में बैंकिंग संकट व बैंक की विफलताओं ने समय-समय पर भारत में जमाकर्ता संरक्षण की आवश्यकता को रेखांकित किया था। भारतीय रिज़र्व बैंक की स्थापना के बाद, यह मुद्दा 1938 में सामने आया जब त्रावणकोर क्षेत्र का सबसे बड़ा बैंक त्रावणकोर नेशनल एंड क्विलोन बैंक फेल हो गया। परिणामस्वरूप, 1940 के दशक की शुरुआत में बैंकिंग कानून और सुधार से संबंधित अंतरिम उपाय शुरू किए गए। 1946 और 1948 के बीच बंगाल में बैंकिंग संकट ने एक बार फिर जमा बीमा के मुद्दे को पुनर्जीवित किया। हालाँकि, यह महसूस किया गया कि बैंकिंग कंपनी अधिनियम, 1949 के लागू किए जाने तक इन उपायों को रोक रखा जाए तथा और रिज़र्व बैंक द्वारा बैंकों के पर्यवेक्षण और निरीक्षण के व्यापक प्रबंध किए जाएं।

1960 में लक्ष्मी बैंक की विफलता और उसके बाद पलाई सेंट्रल बैंक की असफलता ने भारत में जमा बीमा की शुरूआत को उत्प्रेरित किया। 21 अगस्त,1961 को जमा बीमा निगम (डीआईसी) बिल संसद में पेश किया गया और 7 दिसंबर, 1961 को इसे राष्ट्रपति की सहमति प्राप्त हुई। जमा बीमा निगम ने 1 जनवरी, 1962 को कार्य करना शुरू किया।

जमा बीमा योजना (डिपॉजिट इंश्योरेंस स्कीम) को शुरू में कार्यशील बैंकों में लागू किया गया था। जमा बीमा को विशेष रूप से छोटे जमाकर्ताओं को बैंक विफलताओं से होने वाली बचत के नुकसान के जोखिम से बचाव के उपाय के रूप में देखा गया। इसका उद्देश्य घबराहट की स्थिति न आने देना और बैंकिंग प्रणाली की अधिकाधिक स्थिरता व विकास था - जिसे आज वित्तीय स्थिरता की चिंता कहा जाता है। 1960 के दशक में, यह भी महसूस किया गया कि इस योजना का एक अतिरिक्त उद्देश्य बैंकिंग प्रणाली में जमाकर्ताओं का विश्वास बढ़ाना और जमाराशियों के संग्रहण को सुगम करना था ताकि संवृद्धि और विकास को बढ़ावा मिले।

जब 1960 के दशक की शुरुआत में डीआईसी ने कार्य शुरू किया, तो 287 बैंकों ने इसके यहाँ बीमित बैंकों के रूप में पंजीकरण कराया। 1967 के अंत तक, यह संख्या घटकर 100 हो गई थी, जिसका मुख्य कारण बैंकिंग क्षेत्र को अधिक व्यवहार्य बनाने के लिए भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा बड़े पैमाने पर छोटे और वित्तीय रूप से कमजोर बैंकों के पुनर्निर्माण और समामेलन की नीति थी। 1968 में, डिपॉजिट इंश्योरेंस कॉर्पोरेशन एक्ट में संशोधन कर 'पात्र सहकारी बैंकों' को जमा बीमा में शामिल किया गया। वैसे, सहकारी बैंकों को इसमें जोड़ने की प्रक्रिया में कुछ समय लगा क्योंकि राज्य सरकारों के लिए अपने सहकारी कानूनों में संशोधन करना आवश्यक था। संशोधित कानून से रिज़र्व बैंक को राज्य के सहकारी समितियों के रजिस्ट्रार को किसी सहकारी बैंक का समापन करने का आदेश देने या उसकी प्रबंधन समिति को अपदस्थ करने और भारतीय रिजर्व बैंक से लिखित में पूर्व मंजूरी के बिना रजिस्ट्रार को किसी सहकारी बैंक के समापन, समामेलन या पुनर्निर्माण के लिए कोई कार्रवाई नहीं करने देने का अधिकार मिला। सहकारी बैंकों को शामिल करने के परिणाम आए - 83 वाणिज्यिक बैंकों की जगह 1968 में 1000 से अधिक सहकारी बैंक इसमें शामिल थे। नतीजतन, डीआईसी को अपने कार्यों का बहुत विस्तार करना पड़ा।

1960 और 1970 का दशक संस्था निर्माण का दौर था। 1971 में क्रेडिट गारंटी कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (सीजीसीआई) नामक एक अन्य संस्था की स्थापना हुई। भारत में जहाँ जमाकर्ताओं की सुरक्षा, वित्तीय स्थिरता सुनिश्चित करने, बैंकिंग प्रणाली में विश्वास जगाने और जमा राशि जुटाने में मदद करने के लिए जमा बीमा की शुरूआत हुई, वहीं क्रेडिट गारंटी कॉर्पोरेशन की स्थापना मूलत: सकारात्मक कार्रवाई थी ताकि अब तक उपेक्षित क्षेत्रों और कमजोर वर्गों की क्रेडिट जरूरतों की पूर्ति सुनिश्चित की जा सके। मूल सरोकार था वैसे ग्राहकों को भी ऋण देने के लिए बैंकों को तैयार करना जो उतने ऋण पात्र न हों।

1978 में, निक्षेप बीमा और प्रत्यय गारंटी निगम (डिपॉजिट इंश्योरेंस एंड क्रेडिट गारंटी कॉर्पोरेशन) (डीआईसीजीसी) के गठन के लिए डीआईसी और सीजीसीआई को मिला दिया गया। परिणामत:, डिपॉजिट इंश्योरेंस एक्ट, 1961 का नाम डिपॉजिट इंश्योरेंस एंड क्रेडिट गारंटी कॉर्पोरेशन एक्ट, 1961 पड़ा। विलय जमा बीमा (डिपॉजिट इंश्योरेंस) और क्रेडिट गारंटी के कार्यों को एकीकृत करने के उद्देश्य से तथा तत्कालीन सीजीसीआई की वित्तीय आवश्यकताओं के लिए भी था।

विलय के बाद, डीआईसीजीसी का ध्यान क्रेडिट गारंटी पर गया। इसका कुछ कारण तो यह था कि अधिकांश बड़े बैंकों का राष्ट्रीयकरण हो गया था। 1990 के दशक में किए गए वित्तीय क्षेत्र में सुधार के साथ, क्रेडिट गारंटी को क्रमश: समाप्त कर दिया गया है और घबराहट हटाने, प्रणालीगत जोखिम कम करने व वित्तीय स्थिरता सुनिश्चित करने के उद्देश्यों के साथ निगम का ध्यान जमा बीमा के मूल कार्य की ओर वापस लौट रहा है।

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