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कार्यसंचालन

भारत में शहरी सहकारी बैंकों का संक्षिप्त इतिहास

शहरी सहकारी बैंक (यूसीबी) औपचारिक रूप से परिभाषित तो नहीं है, पर शहरी और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में स्थित प्राथमिक सहकारी बैंकों को इंगित करता है। 1996 तक इन बैंकों को केवल गैर-कृषि उद्देश्यों के लिए धन उधार देने की अनुमति दी गई थी। यह विभाजन आज नहीं है। पारंपरिक रूप से ये बैंक समुदायों, इलाकों और कार्य स्थलों के इर्द-गिर्द केंद्रित थे। वे मुख्यत: छोटे उधारकर्ताओं और व्यवसायों को उधार देते थे। आज, उनके कार्य का दायरा बहुत विस्तृत हो गया है।

भारत में शहरी सहकारी बैंकिंग आंदोलन की उत्पत्ति उन्नीसवीं शताब्दी के आस-पास देखी जा सकती है, जब ब्रिटेन में सहकारी आंदोलन और जर्मनी में सहकारी ऋण आंदोलन से संबंधित प्रयोगों की सफलता से प्रेरित होकर ऐसी सोसायटीज़ भारत में स्थापित की गई थीं। सहकारी समितियां सहयोग के सिद्धांतों - पारस्परिक सहायता, लोकतांत्रिक निर्णय प्रक्रिया और खुली सदस्यता - पर आधारित हैं। वाणिज्यिक संगठन के प्रमुख स्वरूप, मालिकाना फर्मों,साझेदारी फर्मों और संयुक्त स्टॉक कंपनियों से अलग सहकारी संस्थाएं एक नए और वैकल्पिक दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करती हैं।

प्रारंभ

भारत में प्रथम ज्ञात पारस्परिक सहायता समाज/समिति संभवत: 1889 में तत्कालीन बड़ौदा रियासत में विट्ठल लक्ष्मण - भाऊसाहेब कवठेकर के नाम से भी परिचित- के मार्गदर्शन में गठित "अन्योन्य सहकारी मण्डली" थी। शहरी सहकारी ऋण समितियां, अपने प्रारंभिक चरण में अपने सदस्यों की उपभोगमूलक ऋण आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सामुदायिक आधार पर गठित की गई। मितव्ययिता और स्वयं सहायता की आदतों को बढ़ावा देने वाली “वेतन जीवी" समितियों ने आंदोलन को विशेषत: मध्य वर्ग में लोकप्रिय बनाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उस समय इसकी उत्पत्ति से लेकर आज तक, ऐतिहासिक रूप से यूसीबी का जोर मध्य और निम्न आय वाले शहरी समूहों से बचत संग्रहण और सदस्यों - जिनमें से कई कमजोर वर्गों के होते थे - को ऋण दिलाने पर रहा है।

सहकारी ऋण सोसायटी अधिनियम, 1904 के अधिनियमन ने आंदोलन को वास्तविक गति प्रदान की। प्रथम शहरी सहकारी क्रेडिट समिति अक्टूबर, 1904 में कांजीवरम (कांजीवरम)-पूर्ववर्ती मद्रास प्रॉविन्स में - पंजीकृत की गई। प्रमुख क्रेडिट सोसाइटीज थी बॉम्बे में पायनियर अर्बन (11 नवंबर, 1905), पूना में नंबर 1 मिलिटरी अकाउंट्स म्यूचुअल हेल्प कोऑपरेटिव क्रेडिट सोसाइटी (9 जनवरी, 1906)। पूना में कॉसमॉस (18 जनवरी, 1906), बेलगाम जिले में गोकाक अर्बन (15 फरवरी, 1906) और बेलगाम पायनियर (23 फरवरी, 1906), दक्षिण रत्नागिरी (अब सिंधुदुर्ग) जिले में कनकवली-मठ कोऑपरेटिव क्रेडिट सोसाइटी और “वरवडे वीवर्स" अर्बन क्रेडिट सोसाइटी (13 मार्च, 1906)। आरंभिक क्रेडिट सोसाइटीज में विट्ठलदास ठकरसी और लल्लूभाई समलदास द्वारा प्रायोजित एवं 23 जनवरी 1906 को स्थापित बॉम्बे अर्बन को-ऑपरेटिव क्रेडिट सोसाइटी सबसे प्रमुख थी।

सहकारी ऋण सोसायटी अधिनियम, 1904 को 1912 में संशोधित किया गया ताकि क्रेडिट से इतर समितियों का गठन हो और इसे व्यापक आधार दिया जा सके। उनके कार्य की समीक्षा करने और उन्हें सुदृढ़ करने के सुझाव देने के लिए मैक्लेगन समिति 1915 नियुक्त की गई। समिति ने कहा कि ऐसी संस्थाएं समाज के निम्न और मध्यम आय वर्ग की जरूरतों के उपयुक्त हैं और मध्य वर्ग में बैंकिंग को बढ़ावा देने में सहायक होगी। समिति ने शहरी सहकारी ऋण आंदोलन को कृषि ऋण समितियों की तुलना में अधिक व्यवहार्य भी पाया। अपने आप में समिति की सिफारिशों ने शहरी सहकारी ऋण आंदोलन को स्थापित करने में दूरगामी योगदान दिया।

वर्तमान समय के संदर्भ में, यह याद करना दिलचस्प होगा कि 1913-14 के बैंकिंग संकट के दौरान, जब पूरे 57 ज्वाइंट स्टॉक बैंक ध्वस्त हुए थे, जमाराशियां ज्वाइंट स्टॉक बैंकों से सहकारी शहरी बैंकों की ओर भागने लगी थीं। मैक्लेगन समिति ने इस घटना को इस प्रकार बताया है:

"दरअसल, संकट का प्रभाव उल्टा पड़ा, और अधिकांश प्रांतों में, गैर-सहकारी समितियों से जमाराशियां निकलाने और उन्हें सहकारी संस्थानों में रखने की हलचल मची। दो प्रकार की सुरक्षा में लोग फ़र्क कर रहे थे और दूसरे (सहकारी) को तरजीह दी जा रही थी, कुछ तो सहकारी संस्थाओं के स्थानीय चरित्र और प्रचार के कारण लेकिन मुख्यत:, हमें लगता है, सहकारी आंदोलन के साथ सरकार के संबंध के कारण".

राज्यांतर्गत क्षेत्र

1919 के संवैधानिक सुधारों के तहत पारित भारत सरकार अधिनियम (गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया ऐक्ट) ने "सहयोग (कोऑपरेशन)" का विषय भारत सरकार से प्रांतीय सरकारों को स्थानांतरित कर दिया गया। 1925 में बॉम्बे सरकार ने पहला राज्य सहकारी समिति अधिनियम पारित किया "जिसने आंदोलन को न केवल इसका आकार प्रकार दिया, बल्कि सहकारी गतिविधियों को दिशा दी और मितव्ययिता, स्वयं सहायता व पारस्परिक सहायता की मूल अवधारणा पर बल दिया।" अन्य राज्यों ने अपनाया। इससे सहकारी क्रेडिट संस्थानों के इतिहास में दूसरे चरण की शुरुआत हुई।

आम समझ यह थी कि आर्थिक निर्माण में शहरी बैंकों की महत्वपूर्ण भूमिका है। कई समितियों ने इस पर जोर दिया। भारतीय केंद्रीय बैंकिंग जाँच समिति (1931) का मानना था कि छोटे व्यवसाय और मध्यम वर्ग के लोगों की मदद करना शहरी बैंकों का कर्तव्य है। मेहता-भंसाली समिति (1939) ने सिफारिश की कि जिन समितियों ने बैंकिंग के मानदंडों को पूरा किया है, उन्हें बैंकों के रूप में काम करने की अनुमति दी जाए और इन बैंकों के लिए एक एसोसिएशन की सिफारिश की। सहकारी योजना समिति (1946) ने कहा कि छोटे लोगों के लिए, जिनमें ज्वाइंट स्टॉक बैंक आमतौर पर रुचि नहीं लेते हैं, सबसे अच्छे माध्यम शहरी बैंक हैं। इनकी स्थापना और संचालन की कम लागत से प्रभावित होकर ग्रामीण बैंकिंग जाँच समिति (1950), ने तालुका शहरों से छोटे स्थानों में भी ऐसे बैंकों की स्थापना की सिफारिश की।

शहरी सहकारी बैंकों का पहला अध्ययन आरबीआई ने वर्ष 1958-59 में किया था। 1961 में प्रकाशित रिपोर्ट ने शहरी सहकारी बैंकों के व्यापक और आर्थिक रूप से मजबूत ढांचे को नोट किया; नए केंद्रों में प्राथमिक शहरी सहकारी बैंकों को स्थापित करने की आवश्यकता पर जोर दिया और सुझाव दिया कि राज्य सरकारें उनके विकास में सक्रिय सहयोग दें। 1963 में, वर्डे समिति ने सिफारिश की कि इस तरह के बैंक 1 लाख या उससे अधिक की आबादी वाले सभी शहरी केंद्रों में गठित किए जाएं और किसी एक समुदाय या जाति द्वारा नहीं। जहाँ यूसीबी निगमित थे, वैसे शहरी केंद्र को परिभाषित करने के लिए समिति ने न्यूनतम आवश्यक पूँजी और जनसंख्या के मानदंड की अवधारणा प्रस्तुत की।

नियंत्रण का द्वैत

तथापि, शहरी सहकारी बैंकों के पेशेवरपन को लेकर हुई फ़िक्र से यह बात उठी कि उनका विनियमन बेहतर हो। 1 लाख रुपए की प्रदत्त शेयर पूँजी व रिज़र्व वाले बड़े सहकारी बैंकों को 1 मार्च, 1966 से बैंकिंग विनियमन अधिनियम 1949 और रिज़र्व बैंक के पर्यवेक्षण के दायरे में लाया गया। यहाँ से इन बैंकों पर नियंत्रण के द्वैत का युग प्रारंभ हुआ। बैंकिंग संबंधी कार्य (अर्थात लाइसेंसिंग, कार्य के क्षेत्र, ब्याज दरें आदि) आरबीआई द्वारा तथा पंजीकरण, प्रबंधन, लेखा परीक्षा और परिसमापन आदि राज्य सरकारों द्वारा संबंधित राज्य अधिनियमों के प्रावधानों के अनुसार देखे जाने थे। 1968 में, यूसीबीएस जमा बीमा के लाभ के दायरे में लाए गए।

1960 के दशक के उत्तरार्ध में लघु उद्योगों को बढ़ावा देने के संबंध में बहुत बहस हुई। यूसीबी इस संदर्भ में महत्वपूर्ण खिलाड़ी के रूप में देखे गए। सहकारी बैंकों के माध्यम से औद्योगिक वित्तपोषण पर कार्य समूह (1968 डैमरी समूह के रूप में ज्ञात) ने शहरी सहकारी बैंकों की गतिविधियों के दायरे को व्यापक बनाने का प्रयास करते हुए सिफारिश की कि ये बैंक लघु और कुटीर उद्योगों को वित्त दें। बैंकिंग कमिशन (1969) ने भी इसे दोहराया।

माधवदास समिति (1979) ने शहरी सहकारी बैंकों की भूमिका का विस्तृत मूल्यांकन किया और उनकी भावी भूमिका का एक रोडमैप तैयार किया, जिसमें पिछड़े क्षेत्रों में ऐसे बैंकों की स्थापना में भारतीय रिज़र्व बैंक और सरकार से समर्थन का सुझाव है और व्यवहार्यता मानक निर्धारित किए गए हैं।

हाटे कार्य दल (1981) ने कहा कि बैंकों के अधिशेष निधियों (सरप्लस फ़ंड्स) का बेहतर उपयोग हो और इन बैंकों के आरक्षित नकदी निधि अनुपात (सीआरआर) और सांविधिक चलनिधि अनुपात (एसएलआर) का प्रतिशत चरणबद्ध तरीके से वाणिज्यिक बैंकों के बराबर लाया जाए। मराठे समिति (1992) ने जहाँ व्यवहार्यता मानकों को फिर से परिभाषित किया और उदारीकरण के युग की शुरुआत की, माधव राव समिति (1999) ने शहरी सहकारी बैंकों में समेकन, रुग्णता के नियंत्रण, बेहतर पेशेवर मानकों पर ध्यान केंद्रित किया और शहरी बैंकिंग आंदोलन को वाणिज्यिक बैंकों के समानांतर लाने की मांग की।

शहरी बैंकिंग आंदोलन की विशेषता उसका विषम स्‍वरूप और असमान भौगोलिक फैलाव है, क्‍योंकि इनमें से अधिकांश बैंक गुजरात, कर्नाटक, महाराष्‍ट्र और तामिलनाडु में स्थित हैं। कई बैंक ऐसे भी हैं जो किसी शाखा नेटवर्क के बिना इकाई बैंक हैं, जबकि कई बड़े बैंकों के आग्रह पर 1985 में उन्‍हें बहु-राज्‍य बैंकिंग की अनुमति दी गई, जिससे उन बैंकों ने कई राज्‍यों में अ पनी उपस्थिति दर्ज कर ली है। इनमें से कई बैंक विदेशी मुद्रा के प्राधिकृत व्‍यापारी भी हैं।

हाल के घटनाक्रम

समय के साथ, प्राथमिक (शहरी) सहकारी बैंकों ने कारोबार की संख्या, आकार और कारोबार की मात्रा में महत्वपूर्ण वृद्धि दर्ज की है। 31 मार्च, 2003 तक 2,104 यूसीबी थे, जिनमें से 56 अनुसूचित बैंक थे। इनमें से लगभग 79 प्रतिशत पाँच राज्यों में स्थित हैं, - आंध्र प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, महाराष्ट्र और तमिलनाडु। हाल ही में कुछ बड़े यूसीबी को पेश आई समस्याओं ने इन बैंकों की कुछ कठिनाइयों को उजागर किया है और इस क्षेत्र को समेकित व मजबूत करने और अभिशासन में सुधार के लिए नीतिगत प्रयास किए गए हैं।

स्रोत: ओ.पी.शर्मा के एक पर्चे (पेपर) से जो पहले इतिहास कक्ष में थे।

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